भारत द्वारा वियतनाम को पूरी तरह से चालू नौसैनिक युद्धपोत आईएनएस कृपाण उपहार में देना दोनों देशों के संबंधों में नई गर्मजोशी का सूचक तो है ही, इसे दक्षिण चीन सागर में चीन के वर्चस्ववादी रवैये के खिलाफ साझा तैयारी के रूप में भी देखना चाहिए।
पिछले महीने भारत ने पूरी तरह से चालू नौसैनिक युद्धपोत आईएनएस कृपाण वियतनाम को उपहार में दिया। यह जहाज 28 जून को वियतनाम के लिए रवाना हुआ और आठ जुलाई को कैम रैन पहुंचा। यह हो ची मिन्ह शहर से 300 किलोमीटर की दूरी पर दक्षिण चीन सागर में स्थित कैम रैन खाड़ी में एक प्रमुख नौसैनिक बंदरगाह है। वियतनामी नौसेना की समुद्री क्षमता को बढ़ावा देने के लिए भारत द्वारा 12 उच्च गति की नौकाएं सौंपने के एक साल बाद इस युद्धपोत का हस्तांतरण हुआ है।
भारत सरकार के इस कदम को इस दक्षिण पूर्व एशियाई देश के साथ रणनीतिक संबंधों में सर्वोच्च मानक माना जा सकता है। वर्ष 1954 में फ्रांस के खिलाफ वियतनाम द्वारा युद्ध जीतने के बाद भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू उसके पहले मेहमान बने थे। यह रिश्ता दक्षिण वियतनाम में अमेरिकी सैनिकों की मौजूदगी और यहां तक चीन समर्थित उत्तरी वियतनामी कम्युनिस्ट लड़ाकों द्वारा वियतनाम पर कब्जे के बाद भी बना रहा।
वियतनाम के साथ हमारे रणनीतिक संबंध में रक्षा सहयोग एक महत्वपूर्ण स्तंभ के रूप में उभरा है। नवंबर, 2009 में दोनों देशों के रक्षा मंत्रियों द्वारा रक्षा सहयोग के लिए सहमति पत्र पर हस्ताक्षर करने से हमारे संबंध और मजबूत हुए हैं। भारतीय जहाज नियमित रूप से वियतनाम में रुकते हैं। पहली बार, एक वियतनामी जहाज ने फरवरी, 2016 में भारत के विशाखापत्तनम में इंटरनेशनल फ्लीट रिव्यू में भाग लिया था। इसी तरह, शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए अंतरिक्ष का उपयोग, आईटी सहयोग, साइबर सुरक्षा, परमाणु ऊर्जा का उपयोग, नवीकरणीय ऊर्जा और बहु-आयामी व्यावसायिक संपर्क हमारे संबंधों की भावना को प्रदर्शित करते हैं।
गौरतलब है कि भारत और वियतनाम, दोनों दक्षिण चीन सागर पर चीन के दावों से परेशान हैं। भारत ने इस बात का संज्ञान लिया कि हेग स्थित स्थायी मध्यस्थता न्यायालय (पीसीए) से फिलीपींस शासन की मध्यस्थता की मांग एक तार्किक पहल थी। और पीसीए ने जुलाई, 2016 में चीन के समुद्री दावों के खिलाफ फैसला सुनाया। महत्वपूर्ण बात यह है कि बाद के दावों में ‘इतिहास के तथ्य’ को सिरे से खारिज कर दिया गया। चीन ने न केवल इस फैसले की वैधता को खारिज कर दिया, बल्कि इसे अस्वीकार करते हुए दावा किया कि विवाद का कोई भी समाधान द्विपक्षीय बातचीत के जरिये होना चाहिए। विश्लेषक चीन के इस रवैये को दावेदारों को डराने की धमकी के तौर पर देख रहे हैं।
दक्षिण चीन सागर में कई प्रमुख खिलाड़ियों के हितों की व्यापकता और उनके समग्र अंतर्संबंध एक तरफ चीन, तो दूसरी तरफ ब्रुनेई, ताइवान, मलयेशिया और फिलीपींस के साथ स्थिति को बिगाड़ देते हैं। मुख्य रूप से, यह वियतनाम तट पर स्थित स्प्रैटली और पैरासेल्स द्वीपों पर दावों से उभरा। 1,800 किलोमीटर लंबी वियतनामी तटरेखा इन द्वीपों के सामने है। इन दक्षिण पूर्व एशियाई देशों के द्वीप और समुद्री दावों से जुड़े कई विवाद हैं, जिनमें से प्रत्येक अलग-अलग देशों से जुड़ा हुआ है; लेकिन विवाद के केंद्र में डैश लाइन क्षेत्र है, जिस पर चीन दावा करता है, जो दक्षिण चीन सागर के अधिकांश क्षेत्र में फैला है और उपर्युक्त देशों के विशिष्ट आर्थिक क्षेत्र को आक्रामक रूप से घेरता है।
गौरतलब है कि भारत और वियतनाम, दोनों दक्षिण चीन सागर पर चीन के दावों से परेशान हैं। भारत ने इस बात का संज्ञान लिया कि हेग स्थित स्थायी मध्यस्थता न्यायालय (पीसीए) से फिलीपींस शासन की मध्यस्थता की मांग एक तार्किक पहल थी ।
चीनी बयानबाजी से उसके दावे वाले समुद्री इलाकों पर नियंत्रण की बू आती है। पीसीए द्वारा विचार-विमर्श की पूरी अवधि के दौरान चीन ने सार्वजनिक रूप से भागीदारी से परहेज करते हुए इसके खिलाफ मीडिया में लगातार हंगामा मचाया। हालांकि भारत सहित सभी देश चाहते हैं कि दक्षिण चीन सागर अंतरराष्ट्रीय जल क्षेत्र के रूप में बना रहे, जैसा कि संयुक्त राष्ट्र समुद्री कानून संधि (यूएनसीएलओएस) में वर्णित ‘अंतरराष्ट्रीय जल में नौवहन की स्वतंत्रता’ में स्पष्ट रूप से शामिल है।
चीन का रवैया स्पष्ट रूप से और जान-बूझकर उस क्षेत्र में भारत के हितों में दखल देने वाला है। वियतनाम की मैत्रीपूर्ण यात्रा के दौरान भारतीय नौसेना के जहाज आईएनएस ऐरावत के बारे में एक खबर आई थी कि वह चीनी जल क्षेत्र में प्रवेश कर रहा था। यह घटना 22 जुलाई, 2011 की है, जब भारतीय जहाज वियतनाम के तट से 80 किलोमीटर दूर था। उसे इसकी सूचना एक ऐसे सूत्र ने दी, जिसने खुद को चीनी नौसेना बताया। हालांकि, नौसैनिक पोत को किसी टकराव का सामना नहीं करना पड़ा, लेकिन इस संचार ने स्पष्ट रूप से ‘नौवहन की स्वतंत्रता और अंतरराष्ट्रीय जल क्षेत्र से गुजरने के अधिकार’ में बाधा उत्पन्न की।
विगत मई में भारत और वियतनाम की नौसेनाएं दक्षिण चीन सागर में आयोजित आसियान-भारत समुद्री अभ्यास के उद्घाटन का हिस्सा थीं। उस दौरान चीनी निगरानी पोत जियांग यांग होंग, 10 और कम से कम आठ समुद्री लड़ाकू जहाज, चीनी नौसेना के एक मोर्चे के रूप में उस क्षेत्र की ओर रवाना हुए, जहां नौसेना अभ्यास आयोजित किया गया था। चीनी जहाज वियतनाम के विशेष आर्थिक क्षेत्र की ओर चले गए, और यह स्पष्ट नहीं था कि इसका उद्देश्य नौसैनिक अभ्यास पर नजर रखना था या वियतनाम के विशेष आर्थिक क्षेत्र में घुसपैठ करना था, जहां चीन समुद्री विवाद में उलझा हुआ है।
वर्ष 2011 में ही चीन और वियतनाम ने दक्षिण चीन सागर में विवादों की रोकथाम के लिए एक समझौते पर हस्ताक्षर किए। इधर भारत की सरकारी तेल कंपनी ओएनजीसी विदेश लिमिटेड ने दक्षिण चीन सागर में पेट्रो वियतनाम के कुछ हिस्सों की खोज के लिए वियतनाम के साथ एक समझौते पर हस्ताक्षर किए। इस वैध समझौते पर प्रतिक्रिया जताते हुए चीन ने कहा कि ‘दक्षिण चीन सागर और उसके द्वीपों पर चीन को निर्विवाद संप्रभुता प्राप्त है।’ और यह कि ‘चीन का रुख ऐतिहासिक तथ्यों और अंतरराष्ट्रीय कानून पर आधारित है। हम चीन के अधिकार वाले जल क्षेत्र में तेल और गैस की खोज तथा विकास गतिविधियों में शामिल किसी भी देश के विरोध में हैं। हमें उम्मीद है कि संबंधित देश दक्षिण चीन सागर विवाद में शामिल नहीं होंगे।’ लेकिन सवाल उठता है कि आखिर चीन किस इतिहास की दुहाई देता है।
दक्षिण चीन सागर का विस्तार प्रमुख समुद्री मार्ग का हिस्सा है। यह न केवल समुद्र तक फैले देशों के लिए, बल्कि भारत सहित शेष विश्व के लिए भी महत्वपूर्ण व्यापार मार्ग है। इसलिए चीनी शासन को युद्ध का खेल नहीं खेलना चाहिए। चीन के इसी रवैये के खिलाफ वियतनामी नौसेना को मजबूत करने के लिए भारत ने उसे यह युद्धपोत उपहार में दिया है।
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