पाकिस्तान को अब भी एक ‘सच्चा लोकतंत्र’ बनने के लिए लंबा रास्ता तय करना पड़ेगा, जिसका नेतृत्व भारत की तरह एक प्रभावी असैन्य नेतृत्व करे।वहां की सेना ने राजनीति में अपनी असह्य भूमिका की याद दिलाते हुए पिछले महीने देर रात कराची में एक होटल के कमरे से नवाज शरीफ के दामाद पूर्व सैन्य कैप्टन सफदर को गिरफ्तार किया था।
उन्हें तब गिरफ्तार किया गया, जब कथित तौर पर वह होटल के कमरे में अपनी पत्नी मरियम नवाज के साथ थे, जो नवाज शरीफ की गैर मौजूदगी में पीएमएल एन का नेतृत्व कर रही हैं। आधिकारिक तौर पर सफदर को इसलिए गिरफ्तार किया गया, क्योंकि वह कराची में जिन्ना के मकबरे पर नारे लगा रहे थे। लेकिन वास्तव में उनकी गिरफ्तारी पाकिस्तानी सेना के आला अधिकारियों की संवेदनहीन प्रतिक्रिया थी, जिसे कई दशकों बाद पहली बार राजनीतिक दलों द्वारा चुनौती दी गई थी।
पाकिस्तान में एक अलिखित नियम है कि राजनेता केवल अपने राजनीतिक विरोधी पर ही उंगली उठाएंगे, सेना पर नहीं। लेकिन अब पूरे पाकिस्तान में राजनीतिक दलों को भारी जन समर्थन मिल रहा है, जैसा कि ग्यारह विपक्षी पार्टियों के गठजोड़ पाकिस्तान डेमोक्रेटिक मूवमेंट (पीडीएम) के एजेंडे के लिए कराची, गुजरांवाला और क्वेटा में विशाल रैली में दिखा था। पीडीएम में नवाज शरीफ की पाकिस्तान मुस्लिम लीग, भुट्टो की पीपीपी, पख्तून तहफ्फुज मूवमेंट, जमायत-उलेमा-ए इस्लाम शामिल हैं। ये विपक्षी दल न सिर्फ इमरान खान को सत्ता से बाहर करना चाहते हैं, बल्कि सेना को भी राजनीति से बाहर करना चाहते हैं, जिसने चुनाव में धांधली करके इमरान को ‘चुना’ था।
पाकिस्तान की राजनीति में सेना का दखल कोई नई बात नहीं है। नई बात है ग्यारह पार्टियों के गठबंधन द्वारा मुल्क की हर चीज को परोक्ष रूप से नियंत्रित करने वाली पाकिस्तानी सेना को दी गई चुनौती। सेना ‘राष्ट्रीय सुरक्षा हालात’ का हवाला देकर अतीत में अपने सभी गलत कामों पर पर्दा डालती रही है। और अपने राजनीतिक एजेंडे को व्यापक रूप से लागू करने के लिए जरूरत होने पर कुख्यात पुलिस बल का प्रयोग करती रही है।
लेकिन इस बार सिंध प्रांत की पुलिस (जहां कराची स्थित है) ने बगावत कर दी, क्योंकि सिंध प्रांत के पुलिस महानिदेशक को सेना के दो कर्नल ने बंदूक की नोक पर अगवा करके नवाज शरीफ के दामाद की गिरफ्तारी का आदेश जारी करने का दबाव बनाया। सिंध आईजी के सार्वजनिक अपमान का संदेश सिंध पुलिस तक पहुंचा, जिसके बारे में हमेशा से माना जाता है कि वह सेना के इशारे पर काम करती है। लेकिन पुलिसकर्मियों के समर्थन में व्यापक जन समर्थन और पुलिस विद्रोह ने संयुक्त रूप से पाकिस्तानी सैन्य जनरलों को परेशान कर दिया।
तो क्या पाकिस्तान अब व्यापक सैन्य-नागरिक गतिरोध की तरफ बढ़ेगा? अगर सेना इस कहानी को अपने पक्ष में मोड़ने में नाकाम रही, तो ऐसा हो सकता है। फर्क यह है कि इस बार नेतृत्व वकीलों के हाथ में नहीं होगा- जैसा कि प्रधान न्यायाधीश इफ्तिखार चौधरी और जनरल मुशर्रफ के मामले में हुआ था- और न ही सरकार के पास, जैसा कि अतीत में नवाज शरीफ, बेनजीर और उनके पिता जुल्फिकार भुट्टो के समय हुआ था।
इतिहास हमें बताता है कि पाकिस्तान में जिस भी प्रधानमंत्री ने सेना को चुनौती दी है, या तो उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया गया या उन्हें फांसी पर लटका दिया गया। पाकिस्तान ही ऐसा मुल्क है, जहां सेना प्रमुख को किसी को मृत्युदंड देने का अधिकार है और इसे वहां की अदालत की मंजूरी हासिल है, जैसा कि हमने कुलभूषण जाधव मामले में देखा है।
लेकिन सेना के लिए सबसे बड़ा खेल किसी व्यक्ति को प्रधानमंत्री बनाना है, जो उसके इशारे पर चले। चूंकि इमरान सरकार सेना की कठपुतली है, इसलिए फिलहाल तख्तापलट की संभावना नहीं है। अतीत में पाकिस्तान में तख्तापलट तभी हुए हैं, जब राजनेताओं ने या तो लोगों के धैर्य को खत्म कर दिया है, या भ्रष्टाचार हुआ है/सांविधानिक मानदंडों को हाशिये पर डाल दिया गया है, या दोनों हुआ है। शरीफ और जरदारी-भुट्टो कुनबे द्वारा इकट्ठा की गई संपत्ति की तुलना में इमरान भ्रष्ट नहीं हैं, लेकिन पाकिस्तान को आर्थिक संकट से बाहर निकालने के लिहाज से वह योग्य नहीं हैं।
इस बार आम लोग भी चाहते हैं कि सेना और खुफिया एजेंसी अपने बैरक में रहें। हालांकि ऐसी संभावना नहीं है, क्योंकि रावलपिंडी स्थित सैन्य अधिकारी इस मांग को आसानी से स्वीकार नहीं करेंगे। दशकों से, पाकिस्तान की सेना ने देश पर मजबूत पकड़ बनाए रखी है, क्योंकि अंदरूनी सूत्रों के मुताबिक, इससे उन्हें प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से वार्षिक राष्ट्रीय बजट का 70 फीसदी से अधिक हिस्सा मिलता है। यह आवंटन केवल पाकिस्तान की रक्षा के लिए नहीं है, बल्कि उनकी विलासिता को बनाए रखने के लिए है। वहां की सेना पाकिस्तान के सबसे बड़े जमींदार हैं।
लेकिन दो बड़े सवाल हैं- यदि राजनेताओं और आम लोगों के ताजा गुस्से से इमरान खान की बर्खास्तगी होती है, तो क्या अगला नेतृत्व बेहतर होगा? और क्या पाकिस्तान के भीतर की अशांति भारत-पाक सीमा पर तनाव बढ़ाएगी? यह बेहद मूर्खतापूर्ण होगा, अगर पाकिस्तानी सेना भारत के खिलाफ कोई दुस्साहस करती है, क्योंकि सेनाएं केवल अपनी सीमा का बचाव करने में सक्षम हैं, यदि जनता उनका समर्थन करती है। भारतीय सेना दोनों मोर्चों पर लड़ने के लिए सक्षम और तैयार है और पाकिस्तानी सेना इसे बखूबी जानती है।
अगर पाकिस्तान में उथल-पुथल जारी रहती है, तो यह वास्तव में भारत के लिए अच्छा ही होगा। उनके जनरल अंदरूनी लड़ाई में व्यस्त रहेंगे। जहां तक पाकिस्तान के राजनेताओं की बात है, तो वे रास्ते में आए अवसरों से भटकने के लिए कुख्यात हैं। वे इतने असुरक्षित हैं कि अपने हाथों में सारी शक्ति हड़पना चाहते हैं, जैसा कि जुल्फिकार अली भुट्टो ने 1970 के मध्य में और नवाज शरीफ ने 1990 के उत्तरार्ध में किया था।
और वे शासन, अर्थव्यवस्था, बुनियादी ढांचों के निर्माण, आदि मुद्दों के बजाय अपना ज्यादातर समय और ऊर्जा अपने विरोधियों के खिलाफ खर्च करते हैं। और अंततः देश की कमान संभालने के लिए सेना को आमंत्रित किया जाता है। तब तक, आधी रात की दस्तक पाकिस्तानियों को याद दिलाती रहेगी कि उनका मुल्क ‘पुलिस राज्य’ नहीं, बल्कि सेना की संपत्ति है!
(This story earlier appeared in Amara Ujala)